G.NEWS 24 : एक सन्न कर देने वाला रहस्य - वो सच, जो इतिहास की किताबों से छुपा लिया गया !

13 अप्रैल 1919 भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय...

एक सन्न कर देने वाला रहस्य - वो सच, जो इतिहास की किताबों से छुपा लिया गया !

13 अप्रैल 1919 का दिन भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय है। इस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में जो नरसंहार हुआ, उसने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया। पर क्या हम उस दिन की पूरी सच्चाई जानते हैं? क्या इतिहास में जो दर्ज किया गया, वह सब कुछ था? आज हम आपको जलियांवाला हत्याकांड से जुड़े कुछ ऐसे अंसुने, अनकहे रहस्यों के बारे में बताएंगे, जिन्हें या तो छुपा लिया गया या जानबूझकर अनदेखा किया गया।

"इतिहास ने जो छुपा लिया,

वो आज फिर कलम ने जगा दिया।

जलियांवाला की वो चीखें अब भी जिंदा हैं,

सिर्फ कागजों से नहीं, दिलों से पूछो उनका दर्द क्या था!"

जनरल डायर का असली मकसद - दंगा रोकना नहीं, ‘सबक सिखाना’ था

आधिकारिक रूप से यह कहा गया कि जनरल डायर ने "कानून व्यवस्था बनाए रखने" के लिए गोली चलवाई, लेकिन कुछ ब्रिटिश अफसरों के निजी पत्रों और रिपोर्टों में सामने आया कि डायर का मकसद सिर्फ भीड़ को तितर-बितर करना नहीं था — वह एक 'सबक' देना चाहता था, जिससे भारतीय कभी दोबारा बगावत का साहस न कर सकें। डायर ने अपने एक गोपनीय बयान में कहा था - "मैंने वहाँ भीड़ पर गोली चलाई ताकि भविष्य में कोई भारतीय सरकार के खिलाफ उठने की हिम्मत न करे। मैं उन्हें सबक देना चाहता था, सज़ा देना चाहता था।" यह बयान हंटर कमेटी की रिपोर्ट से जानबूझकर हटाया गया था।

मृतकों की असली संख्या – सच छुपाया गया

सरकारी आंकड़ों के अनुसार केवल 379 लोगों की मौत हुई, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक स्वतंत्र जांच समिति के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 1500 से अधिक घायल हुए थे। कुछ ब्रिटिश सैनिकों ने गुप्त रूप से बताया कि उन्हें 1650 राउंड गोलियां दी गई थीं, जिनमें से लगभग 1650 ही चलाई गईं, यानी हर गोली किसी न किसी को लगी थी। बाग के कुएं से करीब 120 शव निकाले गए, जो यह साबित करता है कि जान बचाने के लिए सैकड़ों लोग कूदे और वहीं दम तोड़ बैठे।

लाशों को हटाने का खौफनाक तरीका – कुत्तों से नोचवाया गया !

जलियांवाला बाग में मरने वालों की लाशें घंटों तक पड़ी रहीं। अंग्रेज प्रशासन ने किसी को भी घायलों की मदद करने या शव उठाने की इजाजत नहीं दी। गुप्त गवाहों के अनुसार, रात होते ही वहां जंगली कुत्ते छोड़े गए, जिन्होंने कई शवों को नोच खाया। जब यह बात अमृतसर के डॉक्टरों ने सरकार से छुपकर रिपोर्ट की, तो उन्हें धमकी देकर चुप करा दिया गया।

जनरल डायर को ‘नायक’ बताने वाले गुप्त क्लब्स

ब्रिटेन में डायर की इस करतूत को लेकर दो विचारधाराएं थीं – कुछ लोग उसे राक्षस मानते थे, लेकिन कई शाही परिवार और ब्रिटिश अधिकारी वर्ग में उसे हीरो माना गया। 'हाउस ऑफ लॉर्ड्स' में उसे सरस्वती की मूर्ति का प्रतीक मानते हुए सम्मानित करने की योजना तक बनाई गई थी। कुछ गुप्त क्लबों ने तो डायर के लिए चंदा इकट्ठा कर 26,000 पाउंड (आज के करोड़ों रुपए) भेजे, जिससे उसकी जीवन भर की व्यवस्था हो गई।

हंटर कमेटी – एक ढोंग, एक आंखों में धूल झोंकना

जनता के आक्रोश को शांत करने के लिए जो हंटर कमेटी बनाई गई, उसमें एक भी भारतीय सदस्य को निर्णयकारी अधिकार नहीं था। डायर से सवाल तो पूछे गए, लेकिन उसे कभी दंडित नहीं किया गया। उल्टा, ब्रिटिश सरकार ने उसकी पेंशन और सुविधा बरकरार रखी। रिपोर्ट में जानबूझकर कई कड़े शब्दों और तथ्यों को हटाकर मामले को 'नरसंहार' की जगह 'गलती' करार दिया गया।

इंटेलिजेंस फेल या जानबूझकर प्लान?

ब्रिटिश इंटेलिजेंस पहले से जानती थी कि जलियांवाला बाग में सभा होनी है, लेकिन उसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कई इतिहासकार मानते हैं कि यह एक सोची-समझी साजिश थी, जिसमें लोगों को जानबूझकर एकत्रित होने दिया गया और फिर गोलियों से मार दिया गया — ताकि डर फैलाया जा सके और भारत में उभरती राष्ट्रवादी ताकतों को कुचला जा सके।

गांधीजी को 'निशाने पर' लेने की योजना भी तैयार थी

गोपनीय दस्तावेजों से यह संकेत मिलता है कि गांधीजी की बढ़ती लोकप्रियता से ब्रिटिश सरकार डरी हुई थी। जलियांवाला बाग के बाद कुछ गुप्त सैन्य दस्तावेजों में इस बात का ज़िक्र मिला कि गांधीजी को देशद्रोह के तहत गिरफ्तार करके नजरबंद या खत्म करने की योजना पर भी चर्चा हुई थी। हालांकि कुछ अधिकारियों ने इसका विरोध किया, क्योंकि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सरकार की छवि खराब हो सकती थी।

    जलियांवाला बाग हत्याकांड महज एक घटना नहीं थी, यह एक पूर्व-निर्धारित नरसंहार, एक राजनीतिक हथियार, और एक भय फैलाने की मशीनरी थी। जो बातें वर्षों तक इतिहास के पन्नों में दबा दी गईं, वे आज धीरे-धीरे सामने आ रही हैं। हमें अब इस बात को समझना होगा कि आज़ादी हमें सिर्फ "कागज के करार" से नहीं मिली, बल्कि हजारों मासूमों के खून, चीत्कार और बलिदान से मिली है।

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