G News 24 : “संवैधानिक चौखट के बाहर बैठे स्वयंभू न्यायाधीश” !!!

 कानून सर्वोपरी है उसे सभी को मानना होगा चाहे फिर कोई भी हो...

“संवैधानिक चौखट के बाहर बैठे स्वयंभू न्यायाधीश” !!!

भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और सुप्रीम कोर्ट इसकी रक्षा करने वाला अंतिम प्रहरी। लेकिन अफसोस की बात है कि आज कुछ समुदाय और नेता स्वयं को इस सर्वोच्च संस्था से भी ऊपर समझने लगे हैं। यह प्रवृत्ति केवल संविधान का अपमान नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल स्तंभों पर सीधा हमला है।

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहाँ कुछ नेता और समुदाय विशेष के लोग स्वयं को न केवल संविधान से ऊपर मानते हैं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट से भी आगे समझने लगे हैं। ये वही लोग हैं जो अदालतों के फैसलों को "भावनाओं का अपमान" बताकर खुलेआम न्यायपालिका की गरिमा को चुनौती देते हैं।

सुप्रीम कोर्ट, जो कि हमारे लोकतंत्र का सबसे ऊँचा न्यायिक मंच है, वहाँ से आया निर्णय जब इन स्वयंभू ठेकेदारों के एजेंडे से मेल नहीं खाता, तो ये उसे “जनभावनाओं के खिलाफ” करार दे देते हैं। क्या संवैधानिक मूल्यों की व्याख्या अब सड़क पर बैठे नारों से होगी? क्या न्याय अब भीड़ के उन्माद से तय होगा?

कुछ कट्टरपंथी और उनके समर्थक नेता जहां लाभ देखते है,वहां तो संविधान की दुहाई देने लगते हैं और जब देखते हैं कि फलां कानून की पलना करने से उनकी मनमानी नहीं चलेगी तो धर्म की आड़ लेकर अपने कर्तव्यों से भागने लगते हैं। यहां यह भी देखना होगा कि जिस कानून का सहारा लेकर धर्म की आड़ में मनमानी एक पक्ष कब तक करता रहेगा। 

क्योंकि धर्म तो दुसरे पक्षों के भी हैं और यदि सभी पक्ष ऐसे ही इनके समान मनमानी करने लगे तो सोचिये क्या होगा। संविधान की बनाई व्यवस्था के सहारे चलने वाले भारत में एक पक्ष और और उनके सपोर्टर कुछ नेता मनमानी करते हुए देश कानून का उलन्घन करते रहें और वाकी सब कानून के हिसाब से चलें, तो ऐसा संभव नहीं है। कानून सर्वोपरी है उसे सभी को मानना होगा चाहे फिर कोई भी हो। 

लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट से ऊपर बनने की मानसिकता

राजनीति में कुछ नेता जब लोकप्रियता की ऊंचाई छू लेते हैं या किसी विशेष वर्ग का समर्थन उन्हें मिल जाता है, तो उन्हें यह भ्रम हो जाता है कि वे सब कुछ तय कर सकते हैं ,कानून, न्याय, और यहां तक कि नैतिकता भी। जब सुप्रीम कोर्ट कोई निर्णय देता है जो उनके निजी या राजनीतिक हितों के विरुद्ध होता है, तो वे उसे मानने से इनकार कर देते हैं या फिर उसके खिलाफ ज़हर उगलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि “संवैधानिक चौखट के बाहर स्वयंभू न्यायाधीश” बैठे हुए हैं  यह लोकतांत्रिक प्रणाली का मज़ाक नहीं तो और क्या है ?

कम्युनिटी का दबाव और भीड़तंत्र

कुछ समुदाय विशेष मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को नकार देते हैं और सड़कों पर उतरकर दबाव बनाते हैं। उन्हें लगता है कि भीड़ की ताकत से वे न्यायपालिका को झुका सकते हैं। यह सोच संविधान की आत्मा के खिलाफ है। अगर हर कोई अपनी सहूलियत से कोर्ट के फैसले को स्वीकार या अस्वीकार करेगा, तो न्याय व्यवस्था का क्या महत्व रह जाएगा?

क्या ये लोकतंत्र की हार नहीं है?

लोकतंत्र में सभी को अभिव्यक्ति की आज़ादी है, परंतु यह आज़ादी अराजकता की इजाजत नहीं देती। यदि हर कोई कानून से ऊपर खुद को मानने लगे तो देश में केवल अव्यवस्था और अंधकार फैलेगा। सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देना या उसे नीचा दिखाना, दरअसल आम नागरिक के अधिकारों को ही कमजोर करना है।

समाज और नेताओं को यह समझना होगा कि न्यायपालिका की गरिमा को बनाए रखना केवल एक संवैधानिक कर्तव्य नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारी भी है। अगर हर कोई संविधान का सम्मान करेगा, तभी देश सुरक्षित, न्यायपूर्ण और मजबूत रहेगा। वरना "मैं" की यह सत्ता अंततः पूरे "देश " को तोड़ देगी। आज ज़रूरत है ऐसी चेतना की, जो हमें याद दिलाए कि संविधान सर्वोपरि है — न कि वह नेता, न वह भीड़, और न ही वह विशेषाधिकारयुक्त मानसिकता, जो अदालत के आदेश को रद्दी का टुकड़ा समझती है।

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