G News 24 : चाहिए सेकुलरिज्म पर ज्ञान देने वालों को सेकुलरिज्म की लाश जरूर देखना चाहिए !

टीवी पर डिवेटों में नहीं उन्हें मुर्शिदाबाद और मालदा जाकर सेकुलरिज्म का असली चेहरा देखना चाहिए 

सेकुलरिज्म पर ज्ञान देने वालों को सेकुलरिज्म की लाश जरूर देखना चाहिए !

हिंदू-मुस्लिम एकता की जो लोग बात करते हैं, उन्हें बंगाल के मुर्शिदाबाद और मालदा जाकर भी अपने सेकुलरिज्म की लाश जरूर देखना चाहिए. हिंदुओं के जले घरों को देखना चाहिए. पलायन करते हिंदुओं के रिलीफ़ कैंपों को देखना चाहिए. खासकर सेकुलरिज्म के हिंदू मजनुओं को वहां जाकर संविधान लहराने का साहस दिखाना चाहिए.

तुष्टिकरण और वोट बैंक के टेररिज्म का नजारा देखना चाहिए. अपनी सत्ता की गलत नीतियों का दुष्परिणाम देखना चाहिए. जले हुए हिंदुओं के मकानों में भारत के संविधान की तलाश करनी चाहिए. वोट बैंक की ममता की क्रूरता पर सवाल करना चाहिए. मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में हिंदुओं को गरिमा के साथ जीने का अधिकार लौटाना चाहिए. अंबेडकर के सपनों के भेदभाव विहीन समता और बंधुता के नाम पर भारत में बन रहे दूसरे पाकिस्तान के निशान पर सजदा कर राजनीति का नया अध्याय शुरू करना चाहिए.

संविधान की शपथ लेने वाले संविधान के विरोध में ऐलान कर रहे हैं. ममता बनर्जी कह रही हैं, वक़्फ़ कानून बंगाल में लागू नहीं होगा. तेजस्वी यादव भी यही कह रहे हैं. राहुल गांधी और अखिलेश यादव तो इसी गठबंधन का हिस्सा हैं, जो संविधान विरोधी बयान देने का अपराध कर रहे हैं. अब तो ऐसा लगने लगा है कि वक़्फ़ संशोधन आम गरीब मुसलमान के हित के लिए भले ही लाया गया हो, लेकिन इस कानून ने सेकुलरिज्म की कट्टरता को भी बेनकाब कर दिया है. 

भारत में बन रहे उन नए इलाकों को उजागर कर दिया है, जिनका नजरिया पाकिस्तान और बांग्लादेश की नीतियों से मेल खाते हैं. भारत में कट्टरता के कारण हिंदुओं के हालात का भी खुलासा हो गया है. दशकों पहले कश्मीरी पंडितों के साथ कश्मीर में जो हुआ था, वह अभी खत्म नहीं हुआ है. उसका वायरस पूरे देश में फैला हुआ है. संविधान और कानून की बातों का सहारा लिया जाता है और जब उन पर चलने का अवसर आता है, तब ऐसे ही कट्टर और बर्बर कबीलाई इतिहास रचा जाता है. 

वक़्फ़ संशोधन कानून की संवैधानिकता और अवैधानिकता तो पीछे चली गई है, अब तो यह कानून वोट बैंक के फेवरिज्म का टूल बन गया है. आजादी के बाद भारत में बचे किसी भी मुसलमान या संगठन की ओर से वक़्फ़ कानून की मांग नहीं की गई थी, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने वोट बैंक की जी दृष्टि से पहली बार यह कानून लागू किया था. संशोधनों के बाद यह कानून अपने विकराल स्वरूप में खड़ा हो गया है. नए संशोधनों को लेकर कानून के विरोध में जो भी बातें आ रही हैं, उसमें तर्क से ज्यादा भावनाओं पर खेला जा रहा है. भावनाओं को भड़काया जा रहा है. सियासत के सेकुलर मजनूं वक़्फ़ कानून विरोध के नाम पर हो रही हिंसा के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं.

अब वह सारी परतें खुलने लगी हैं, जिसमें संविधान के नाम पर, संविधान का सहारा लेकर वोट बैंक का एजेंडा चलाया जा रहा था. संविधान की ऐसी-तैसी करते हुए ऐसे प्रावधान और संशोधन किए जाते रहे जिससे कि वोट बैंक खुश होता रहे. सत्ता चलती रहे. कांग्रेस ने कभी भी यह नहीं सोचा होगा, कि कभी देश में सत्ता बदलेगी और संविधान के नाम पर उनकी कारगुजारियों को समझा जाएगा. उनको बदला जाएगा. कट्टरपंथी कानून के विरोध के नाम पर जो कट्टरता दिखा रहे हैं, वह न उनके हित में है और ना ही राष्ट्र के हित में है. उससे अगर किसी का हित सधेगा तो, वोट बैंक की राजनीति करने वालों का होगा. 

पूरे देश में कुछ मुस्लिम संगठन वक़्फ़ कानून का विरोध कर रहे हैं, लेकिन हिंसा बंगाल में हो रही है. शायद इसलिए हो रही है क्योंकि ममता बनर्जी वोट बैंक की नीयत से हिंसक प्रदर्शनों पर उतनी सख्ती नहीं दिखा रही हैं, जितनी राज्य सरकार को दिखानी चाहिए. ममता बनर्जी सरकार के मंत्री सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों में जिस तरह से हिस्सेदारी कर रहे हैं और सार्वजनिक रूप से भड़काऊ बयान दे रहे हैं उससे तो यही लगता है, कि यह सब सोची-समझी राजनीतिक साजिश है.

वक़्फ़ कानून को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया है. सुनवाई  की तिथि भी निश्चित हो गई है. विरोध प्रदर्शन भी चल रहे हैं. हिंसा का ट्रेलर बंगाल में दिखाकर मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी यह संदेश देना चाहते हैं, कि उनकी ताकत का मुकाबला किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है.  हिंसा और दंगों के कारण एक भी हिंदू परिवार को भारत में रिलीफ कैंप में रहना पड़े तो यह सरकारों के लिए शर्मनाक है. सरकारें शायद इसलिए शर्मसार नहीं होती, क्योंकि यही कट्टरता उनका वोट बैंक मजबूत करती है. उनको सत्ता तक पहुंचाती है. हिंदुओं ने अपनी राजनीतिक ताकत तो कई बार दिखाई है. उनकी राजनीतिक ताकत का ही परिणाम है, कि  तानाशाही पूर्ण वक़्फ़ कानून का संशोधन हो सका.

मुसलमान आज दलितों से भी पिछड़े हुए बताए जाते हैं. कांग्रेस की यूपीए सरकार की सच्चर रिपोर्ट यही बताती है. मुसलमान हमेशा से कांग्रेस का वोट बैंक माने जाते थे. कांग्रेस ने कभी भी मुसलमानों को आगे बढ़ाने का काम नहीं किया. हमेशा उन्हें वोट बैंक तक ही सीमित रखा. केवल उनकी धार्मिक कट्टरता को पोषित करके अपने राजनीतिक हित साधने की रणनीति पर चलते रहे. अब जब संविधान के दायरे में कांग्रेस की राजनीति नहीं चल पा रही है, तो फिर वोट बैंक की कट्टरता और हिंसक प्रदर्शन का भी समर्थन किया जा रहा है. कांग्रेस के निर्वाचित जन प्रतिनिधि भी भड़काऊ भाषा बोल रहे हैं. 

सुप्रीम कोर्ट जब विचार कर रहा है, तो फिर हिंसक प्रदर्शन जायज कैसे ठहराया जा सकता है. सर्वोच्च अदालत में संशोधन कानून की वैधानिकता पर निर्णय हो जाएगा. हिंसक प्रदर्शनों का मोटिव यही दिखता है, कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कट्टरता विरोध नहीं बंद करेगी.

विभाजन की लीगेसी कांग्रेस का इतिहास है. यही लीगेसी अभी भी दिखाई पड़ रही है. संविधान और सेकुलेरिज्म के नाम पर वोट बैंक और तुष्टीकरण का एजेंडा फिल्म, लिटरेचर, कानून और इतिहास में खूब चलाया गया है. प्रेम के प्रतीक एक पत्नी के सपूतों को एजेंडा के तहत दरकिनार किया गया. लैला-मजनू, शीरी-फरहाद और मुग़ल-ए-आज़म जैसी फिल्मों को प्रेम के प्रतीक के रूप में एजेंडा के तहत स्थापित किया गया. जबकि ऐसा कोई बादशाह नहीं होगा जिसके पास एक पत्नी रही हो. बहु पत्नियों वाले प्रेम के प्रतीक कैसे हो सकते हैं.

संविधान के नाम पर भी ऐसे ही एजेंडा चलाया गया. ऐसे-ऐसे संशोधन और कानून बनाए गए, जिससे वोट बैंक संतुष्ट हो सके. संविधान लहराने की सोच ऐसा ही एजेंडा लगता है. संविधान हाथ में लेकर सेकुलर मजनू बने घूमने वाले राजनेताओं का शायद एजेंडा है, कि संविधान की समानता स्थापित करने के प्रयासों को संविधान के नाम पर डराया जा सके.सेकुलरिज्म को वोट बैंक टेररिज्म में बदल दिया गया है. ‘हाथ में संविधान मन में वोट बैंक का पैगाम कुछ पॉलीटिकल पार्टियों की पहचान बन गई है.


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