नेता जनता के मुद्दों पर आस्तीनें भींचने वाले नेता,अपने हित पूर्ती के लिए एक-दूसरे को गले लगाते और मेज थपथपाते नजर आते हैं ...
संसद के अंदर नेताओं के दो चेहरे 'जनता के मुद्दों पर अलग, और 'स्वार्थ' पर एक साथ,जागो-वोटर जागो !
संसद—जिसे लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है—अब ऐसा मंच बन गया है जहाँ नेता जनता के मुद्दों पर तलवारें खींच लेते हैं और अपने निजी हितों पर फूलों की मालाएँ पहनाकर एक-दूसरे को गले लगा लेते हैं। यह अद्भुत नज़ारा तब और भी मनोरम हो जाता है जब दिन की शुरुआत 'गरीबों के लिए लड़ने' के वादों से होती है और समाप्ति 'वेतन बढ़ाने के प्रस्ताव' पर सर्वसम्मति से होती है।
अपनी सुविधाओं पर एकजुटता...
हैरानी तब होती है जब बात खुद नेताओं की सैलरी, भत्तों और सुविधाओं की आती है। संसद में वो दृश्य देखने को मिलता है जो आमतौर पर दुर्लभ होता है – पक्ष और विपक्ष एकजुट। बिना किसी हंगामे के, बिना किसी बहस के, एकमत होकर वे खुद की सैलरी बढ़ा लेते हैं। कारों के नए बेड़े, यात्रा भत्ते, पेंशन की सुविधा – इन पर कोई विवाद नहीं होता। यहां ना वैचारिक मतभेद होते हैं, ना पार्टी लाइन की दीवारें। मानो यही असली ‘सर्वदलीय सहमति’ हो।
जब बात आती है सांसदों के भत्ते बढ़ाने की, विशेषाधिकारों को मजबूत करने की, या फिर भ्रष्टाचार के मामलों में एक-दूसरे को ‘समझने’ की, तो वही नेता एकता की मिसाल बन जाते हैं। विपक्ष और सत्तापक्ष में फर्क ढूँढना मुश्किल हो जाता है। मानो राम और रावण दोनों ने फैसला कर लिया हो कि इस बार लंका मिल-बाँटकर खाएंगे।
संसद में दो चेहरे: जनता के मुद्दों पर तकरार...
संसद के बाहर नेताओं के बयान जनता को लुभाने के लिए होते हैं—"हम अन्नदाता के साथ हैं", "हम युवाओं के भविष्य के लिए चिंतित हैं", "हम महिलाओं की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं"—लेकिन संसद के अंदर जब ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती है तो हॉल अक्सर खाली नजर आता है। हाँ, लेकिन जैसे ही 'विशेषाधिकार प्रस्ताव' आता है, सभी माननीय सदस्य समय से पहले हाजिरी लगा देते हैं, मानो कोई बोनस बँटने वाला हो।
हर चुनाव से पहले नेताओं के भाषणों में जनता का दर्द, गरीबों की तकलीफ, किसानों की दुर्दशा और युवाओं के भविष्य की चिंता साफ झलकती है। वादों की झड़ी लग जाती है – “हम आपके लिए हैं”, “हम गरीबों की सरकार बनाएंगे”, “हम युवाओं को नौकरी देंगे”... लेकिन चुनाव जीतते ही जैसे तस्वीर बदल जाती है। संसद में जब जनता के मुद्दों पर बहस होती है, तो नेता दलगत राजनीति में उलझ जाते हैं। कोई विपक्ष की आलोचना करता है, तो कोई सरकार की नीतियों को बचाने में लग जाता है। नतीजा – असल मुद्दे वहीं के वहीं रह जाते हैं।
जनता बस सोचती रह जाती है...
"हमने तो इन्हें अपने मुद्दों के लिए चुना था, पर इन्होंने तो अपने ही मुद्दों को प्राथमिकता दे दी!" और नेता मुस्कराते हैं, क्योंकि अगले चुनाव में फिर वही नारे, वही वादे और वही चेहरे काम आएँगे—'जनता के लिए, जनता के साथ'—जबकि असल में, 'अपने लिए, आपस में साथ'।
यह दोहरा रवैया आम जनता की आंखों में चुभता है...
एक तरफ जनता महंगाई, बेरोजगारी और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से जूझ रही है। दूसरी ओर, उनके प्रतिनिधि खुद की सुख-सुविधाओं की चिंता में लीन हैं। यह सवाल उठता है – क्या संसद जन प्रतिनिधियों का मंच है या खुद की सुविधाएं बढ़ाने का साधन बन चुका है?
नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी शक्ति जनता के हाथ में होती है। भाषणों से भरोसा नहीं बनता, भरोसा बनता है कथनी और करनी के मेल से। समय आ गया है कि जनता इस फर्क को पहचाने, सवाल करे, और जवाब मांगे।
जनता के हित की आड़ में स्वार्थ की राजनीति
हर चुनाव के समय नेताओं के भाषणों में केवल जनता की बात होती है – गरीबी हटाने की, बेरोजगारी कम करने की, शिक्षा और स्वास्थ्य सुधारने की। लेकिन जैसे ही वे संसद में पहुँचते हैं, अचानक उनकी प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। महत्त्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा के बजाय सदन में हंगामा होता है, वॉकआउट किए जाते हैं, और वास्तविक मुद्दों को दरकिनार कर दिया जाता है।
नेताओं की संपत्ति और जनता की उम्मीदें
पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि कई नेताओं की संपत्ति में अचानक बेतहाशा वृद्धि हुई है। यह तब होता है जब आम आदमी महंगाई, बेरोजगारी और मूलभूत सुविधाओं की कमी से जूझ रहा होता है। संसद में बहस तो होती है – लेकिन उसके पीछे असली उद्देश्य अक्सर किसी विशेष लॉबी का समर्थन या किसी व्यक्ति विशेष का राजनीतिक फायदा सुनिश्चित करना होता है।
जनता की आवाज़ दब रही है
जनता जिन्हें अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजती है, वही नेता अपने स्वार्थों को प्राथमिकता देते हैं। भूमि अधिग्रहण बिल हो या कृषि कानून, कई बार बिना पर्याप्त चर्चा के कानून पास कर दिए जाते हैं। विपक्ष और सत्तापक्ष दोनों अपने-अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के हिसाब से मुद्दों को हवा देते हैं, न कि जनता के भले के लिए।
लोकतंत्र के इस तमाशे में जनता को हर बार टिकट खरीदकर सिर्फ दर्शक की भूमिका निभानी पड़ती है।
लोकतंत्र के इस तमाशे में जनता को हर बार टिकट खरीदकर सिर्फ दर्शक की भूमिका निभानी पड़ती है। असली नाटक तो मंच पर होता है—जहाँ नेता दो चेहरों के साथ अभिनय करते हैं: एक जनता के सामने और दूसरा संसद के अंदर। फर्क बस इतना है कि चेहरे बदलते नहीं, सिर्फ मास्क बदल जाते हैं।
समाधान ...
इस परिदृश्य में ज़रूरत है एक जागरूक और जवाबदेह लोकतंत्र की। जनता को चाहिए कि वह नेताओं से सिर्फ़ वादे नहीं, उनके काम का लेखा-जोखा भी माँगे। संसद की कार्यवाही को समझें, सवाल पूछें और चुनाव में सोच-समझकर निर्णय लें।
नेता जी संसद में जनता के नाम पर जो भाषण देते हैं, अगर वही ऊर्जा और ईमानदारी से वे काम भी करें, तो भारत की तस्वीर बदल सकती है। लेकिन जब तक संसद को 'सेवा' का नहीं बल्कि 'सत्ता' का मंच समझा जाएगा, तब तक जनता के हितों की आड़ में केवल स्वहित की राजनीति चलती रहेगी।
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