इसी कारण पलायन को मजबूर होते हो तुम !
तुम बटे रहो दबंग-दलित,समाज-वर्ग में और वे एक हो जाते हैं सिर्फ एक आवाज पर ...
"विभाजन की राजनीति और दलितों का पलायन"
"“तुम बटे रहो दबंग-दलित, समाज-वर्ग में और वे एक हो जाते हैं सिर्फ एक आवाज़ में”
यह पंक्तियाँ न केवल सामाजिक विडंबना को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि किस प्रकार समाज के शोषित वर्गों को आपसी फूट के कारण बार-बार हाशिये पर धकेल दिया जाता है।
भारत में जाति-आधारित संरचना सदियों पुरानी है, लेकिन आज भी यह पूरी तरह टूटी नहीं है। दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर जो अधिकार मिलने चाहिए, वे अक्सर बंटे हुए होने के कारण उनसे छीन लिए जाते हैं। दूसरी ओर, दबंग और प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों की पूर्ति के लिए समय आने पर एकजुट हो जाते हैं — एक आवाज़, एक निर्णय, एक दिशा में।
यह एकजुटता ही सत्ता और संसाधनों पर उनका पकड़ बनाए रखती है। जबकि दलित समुदाय आपस में जातियों, उपजातियों, और विचारधाराओं में बँटा रह जाता है, जिससे उनके आंदोलन कमजोर पड़ जाते हैं।
जब हाशिये पर रखा गया वर्ग संगठित नहीं हो पाता, तो वह प्रतिरोध नहीं कर पाता — और यही कारण है कि उसे अक्सर अपने ही गांव, शहर, यहाँ तक कि देश छोड़कर पलायन करना पड़ता है। यह पलायन केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और मानसिक भी होता है।
समाधान -
1. सामाजिक एकजुटता: दलित और वंचित समुदायों को आपसी भेदभाव भुलाकर एकजुट होना होगा। संगठन और संवाद ही ताकत बन सकते हैं।
2. शिक्षा और जागरूकता: अधिकारों के प्रति जागरूकता और शिक्षा से ही वास्तविक परिवर्तन संभव है।
3. राजनीतिक प्रतिनिधित्व: अपने हितों की रक्षा के लिए राजनीतिक रूप से सशक्त होना आवश्यक है।
4. सांस्कृतिक आत्मसम्मान: आत्मगौरव और अपनी संस्कृति पर गर्व की भावना ही मानसिक गुलामी से मुक्ति दिला सकती है।
जब तक दलित समाज खुद को "बटे हुए" रखेगा, तब तक वह शोषण के खिलाफ प्रभावशाली संघर्ष नहीं कर पाएगा। समय आ गया है कि "वे एक हो जाते हैं" को चुनौती दी जाए — और "हम भी एक हो सकते हैं" की नींव रखी जाए।
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