परिजनों से बिना सहमति लिए स्थानीय बच्चों को गोद देने के लिए विदेश भेजा ...
साउथ कोरिया ने दुनिया में बांट दिए अपने 2 लाख अनाथ बच्चे !
साउथ कोरिया से एक हैरान कर देने वाली खबर है. खबर ये है कि सरकार ने डॉक्यूमेंट और रिकॉर्ड में हेरफेर किए, परिजनों से बिना सहमति लिए स्थानीय बच्चों को विदेश भेजा ताकी उन्हें लिया जाए. अब सरकार की तरफ से आधिकारिक रूप से माफी की सिफारिश की गई है.
मासूम बच्चे के मां-बाप थे, लेकिन उन्हें अनाथ बताया गया. क्यों? ताकि उन्हें अमेरिका और यूरोप के देशों में एडॉप्शन यानी गोद लेने के लिए भेजा जा सके. अगर भेजने से पहले किसी बच्चे की मौत हो गई तो उसके नाम पर किसी और बच्चे को भेज दिया गया. आप जानते हैं यह सब कौन करा रहा था? जवाब है साउथ कोरिया की पहले की सरकारों ने. देश के दामन पर लगे इस गुनाह के धब्बे को अब खुद वहां की सरकार ने स्वीकार किया है. साउथ कोरिया की आधिकारिक जांच में कहा गया कि सरकार ने डॉक्यूमेंट और रिकॉर्ड में हेरफेर किए, परिजनों से बिना सहमति लिए स्थानीय बच्चों को विदेश भेजा ताकी उन्हें गोद लिया जाए. अब सरकार की तरफ से आधिकारिक रूप से माफी की सिफारिश की गई है.
साउथ कोरिया के ट्रुथ एंड रिकॉन्सिलिएशन कमीशन ने एक बयान में कहा, "यह पाया गया है कि सरकार ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया... जिसके परिणामस्वरूप बहुत सारे बच्चों को विदेश भेजने की प्रक्रिया के दौरान संविधान और अंतरराष्ट्रीय समझौतों द्वारा संरक्षित गोद लेने वालों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ. साउथ कोरिया आज एशिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और संस्कृति का ग्लोबल पावर हाउस बना हुआ है. लेकिन एक और सच्चाई यह भी है कि यह दुनिया में मासूम बच्चों के सबसे बड़े निर्यातकों में से एक बना हुआ है. एक अनुमान के मुताबिक करीब 2 लाख बच्चे दुनिया में बांट दिए गए. इंटरनेशनल एडॉप्टेशन की बात करें तो इस देश ने 1955 और 1999 के बीच 140,000 से अधिक बच्चों को विदेश भेजा है.
साउथ कोरिया ने मासूम बच्चों को एडॉप्शन के लिए विदेशों में भेजा !
एएफपी की रिपोर्ट के अनुसार कोरियाई युद्ध के बाद स्थानीय महिलाओं और अमेरिकी सैनिकों से पैदा हुए मिश्रित नस्ल के बच्चों को देश से निकालने की तरकीब निकाली गई- इंटरनेशनल एडॉप्शन. आप पूछेंगे कि कोई देश मिश्रित नस्ल के बच्चों को क्यों निकालेगा. दरअसल साउथ कोरिया जातीय एकरूपता पर जोर देता है.
आगे 1970 से 1980 के दशक में यह बड़ा बिजनेस बन गया. अंतरराष्ट्रीय गोद लेने वाली एजेंसियों को लाखों डॉलर मिले, क्योंकि देश ने युद्ध के बाद की गरीबी पर काबू पा लिया और तेजी से और आक्रामक आर्थिक विकास किया.
हालांकि बच्चों को गोद लेने के लिए भेजने का सिलसिला आज भी जारी है. हाल में इसका मुख्य कारण है अविवाहित महिलाओं से पैदा हुए बच्चे, जिन्हें अभी भी पितृसत्तात्मक समाज में बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. शिक्षाविदों के अनुसार, अक्सर इन महिलाओं को अपने बच्चे छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है.
जांच में काले कारनामे आए सामने
देश के ट्रुथ एंड रिकॉन्सिलिएशन कमीशन ने दो साल और सात महीने की जांच की. इसके बाद एक ऐतिहासिक घोषणा में उसने कहा कि साउथ कोरिया के बच्चों के अंतरराष्ट्रीय गोद लेने में मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ. इसमें जो बच्चे अनाथ नहीं थे, उन्हें भी अनाथ बताया गया. उनके पहचान से छेड़छाड़ की गई. यहां तक की गोद लेने वाले माता-पिता की पर्याप्त जांच भी नहीं की गई. इसमें यह भी कहा गया है कि "कई मामलों की पहचान की गई जहां बच्चों के कोरियाई जन्म माता-पिता से कानूनी रूप से उचित सहमती भी नहीं ली गई.
कमीशन ने यह भी कहा कि दक्षिण कोरियाई सरकार गोद लेने की फीस को रेगुलेट करने में विफल रही. एजेंसियां आपस में ही समझौता करने मनमर्जी तरीके से फीस लेती रहीं. इस तरह गोद लेने जैसा पवित्र माने जाने वाला काम फायदा कमाने वाली इंडस्ट्री में बदल गया.
नियम यह है कि गोद लेने वाले माता-पिता का पूरी तरह वेरिफिकेशन हो कि वो इस जिम्मेदारी के लायक हैं या नहीं, लेकिन इस नियम को ताक पर रखा गया. जांच में पाया गया है कि अकेले 1984 में जितने भी एप्लीकेशन आए थे उनमें से लगभग सभी को- 99 प्रतिशत - मंजूरी उसी दिन मिल गई थी या अगले दिन दी गई थी.
कमीशन की आयोग की अध्यक्ष पार्क सन-यंग ने कहा, "ये उल्लंघन कभी नहीं होने चाहि.ए थे यह साउथ कोरिया के इतिहास का शर्मनाक हिस्सा है."
एएफपी की रिपोर्ट के अनुसार सालों से गोद लिए गए कोरियाई लोगों (जिन्हें बचपन में गोद लेने के लिए विदेश भेज दिया गया) ने अपने अधिकारों की वकालत की है. कई लोगों ने बताया है कि उनकी जन्म देने वाली माताओं को अपने बच्चों को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था. इस तरह बच्चों को कानूनी रूप से गोद लेने योग्य बनाने के लिए रिकॉर्ड तैयार किए गए.
कुछ दक्षिण कोरियाई माता-पिता ने यह भी दावा किया कि उनके बच्चों का अपहरण कर लिया गया था. एजेंट गरीब इलाकों में लावारिस बच्चों की तलाश करते थे और उन्हें उठा लेते थे. इतना ही नहीं अधिकारियों ने खोए हुए बच्चों को उनके परिवारों के साथ फिर से मिलाने की कोशिश किए बिना गोद लेने के लिए उन्हें भेज दिया. कुछ मामलों में जानबूझकर बच्चे की पहचान बदल दी गई.
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