आधुनिकता की दौड़ में ...
असितत्व की लड़ाई लड़ता माटी का दिया !
बिजली की झल्लरों के आगे,
कैसे टिके माटी का दिया।
ज्योती अंजुरी भर जो रही,
किसी ने संज्ञान भी न लिया।।
ये जग तो बस चमकीलों का है
जो सफल रहे रंगीलों का है
राहगीर पहुंच गये जो मंजिल
दीवार पा गयी कीलों का है
लग गयी कील जो दीवार पर,
तस्वीर ने रुख उसका किया।।
सभी देखें बस रोशन रात को
करती उल्लास की बरसात को
सत्व भी शीश समर्पण को उत्सुक
चमक की विजय सत्व की हार को
जगमग बस दिवाकर की भायी,
तारे पर जग ने मन न दिया।
कहां सोचा पुष्प के मकरंद को
माटी के दिये की उस गंध को
वो प्रणय पवन के संग महक का
प्राणों में घुली उस सुगंध को
शोभित सज्जित प्रकाशित निकट,
कीटों के झुंडों पर मुख सिया।।
- संगीता गुप्ता
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