G News 24 : दलितों की गरीबी और कम आमदनी की असली वजह है, शिक्षा की कमी और समाजिक भेदभाव !

 भारत में अमीर और गरीब(दलित)के बीच का अंतर लगातार बढ़ता ही जा रहा है !

दलितों की गरीबी और कम आमदनी की असली वजह है, शिक्षा की कमी और समाजिक भेदभाव !

भारतीय समाज में दलित शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले 19वीं सदी के भारतीय समाज सुधारक ज्योतिराव फुले ने किया था. ये शब्द उन लोगों के लिए था जिन्हें 'अछूत' या 'बाहर का' समझा जाता था. ये लोग सबसे निचले स्तर पर थे.यानी, दलितों को हमेशा से ही समाज में बहुत कम दर्जा दिया गया है और उन्हें कई तरह के विरोध का सामना करना पड़ा है.यही वजह है कि ये लोग अब एक समाज के रूप में जाने जाते हैं। 

भारत में  करीब 16.6% आबादी दलितों की है. ये लोग ज्यादातर उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा और महाराष्ट्र में रहते हैं. दलितों पर हुए अत्याचार की शुरुआत जाति व्यवस्था से हुई है. यह व्यवस्था बहुत पुरानी है और इसके बारे में मनुस्मृति नाम की एक धार्मिक किताब में लिखा है. दलितों को हमेशा से ही छोटे-मोटे या गंदे माने जाने वाले काम करने पड़ते थे. हिंदू धर्म में चार मुख्य जातियां होती हैं, लेकिन दलित इनमें से किसी में भी शामिल नहीं थे. उन्हें पांचवीं जाति या 'पंचम' कहा जाता था.

उनके पिछड़ेपन की क्या है वजह !

अंग्रेजों ने सबसे पहले इन लोगों को 'अनुसूचित जातियां' (एससी) का नाम दिया था. यह साल 1935 में हुआ था. इसके बाद से इन लोगों को कानून के तहत एक खास दर्जा मिल गया. अब भारत में इन लोगों को शेड्यूल कास्ट (एससी) कहा जाता है. सरकार ने इन जातियों की एक लिस्ट बनाई है, जिनको खास सुविधाएं दी जाती हैं.

लेकिन अगर कोई दलित ईसाई या मुस्लिम बन जाता है तो उसे अनुसूचित जाति की लिस्ट में शामिल नहीं किया जाता है. सिर्फ सिख बनने पर ही ये सुविधा मिलती है. साल 1950 में एक कानून बनाया गया था जिसके मुताबिक सिर्फ हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म मानने वाले ही अनुसूचित जाति के लोग हो सकते हैं.

आज भी दलित व्यापारियों की कम कमाई

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (IIM) बेंगलुरु ने एक अध्ययन किया है. इस अध्ययन में पाया गया कि दलित समुदाय के व्यापारी दूसरे पिछड़े वर्गों के लोगों से काफी कम कमाते हैं. यह बहुत ही हैरानी वाली बात है क्योंकि दलित व्यापारी भी उतने ही पढ़े-लिखे हैं और उनके दोस्तों और जानने वालों की संख्या भी दूसरे पिछड़े वर्गों जितनी ही है. फिर भी उनकी कमाई कम है.

अध्ययन के मुताबिक, इसका मुख्य कारण समाज में दलितों के प्रति गलत धारणा है. लोगों के मन में दलितों के बारे में पहले से ही गलत धारणाएं होती हैं, जिसकी वजह से उन्हें व्यापार में कई तरह की परेशानियां होती हैं. इस वजह से उनकी कमाई कम हो जाती है. यह अध्ययन दिखाता है कि दलितों के साथ आर्थिक असमानता का बड़ा कारण समाज में उनका दर्जा है, न कि सिर्फ शिक्षा या अन्य बातें. यह समस्या बहुत पुरानी है और आज भी बनी हुई है.

दलित व्यापारी दूसरे पिछड़े वर्गों (OBC), आदिवासी (ST) और मुस्लिम जैसे दूसरे कमजोर समूहों से लगभग 16% कम कमाते हैं. अगर पढ़ाई, जमीन, शहर में रहना और रहन-सहन को देखा जाए तो भी दलित व्यापारी कम ही कमाते हैं.

सामाजिक संबंधों का फायदा

सामाजिक संबंधों का मतलब है लोगों के बीच अच्छे रिश्ते, जिससे समाज या समुदाय अच्छे से चल सकता है. अच्छे रिश्ते व्यापारियों को काम में मदद करते हैं. लेकिन दलितों को दूसरे गरीब लोगों की तुलना में इन रिश्तों का कम फायदा मिलता है.

अगर किसी आम आदमी के दोस्तों और जानने वालों की संख्या बढ़ जाती है तो उसकी कमाई में 17.3% की बढ़ोतरी हो सकती है. लेकिन अगर किसी दलित की दोस्तों की संख्या बढ़ती है तो उसकी कमाई में सिर्फ 6% की बढ़ोतरी होगी. इससे पता चलता है कि दलितों को अपने दोस्तों और जानने वालों से भी उतनी मदद नहीं मिलती जितनी दूसरे लोगों को मिलती है. अध्ययन के मुताबिक, दलितों की पढ़ाई का स्तर बढ़ने से उन्हें फायदा तो होता है, लेकिन इससे उनकी कमाई में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आता. इसका मतलब है कि पढ़-लिखकर भी दलित व्यापारी दूसरे लोगों जितना नहीं कमा पाते हैं.

दलितों की कम कमाई का कारण

इसकी सबसे बड़ी वजह है भारत में अमीर और गरीब के बीच बहुत अंतर है. एक दूसरी रिपोर्ट (Income and Wealth Inequality in India) के मुताबिक, भारत में अमीर और गरीब के बीच का अंतर बहुत ज्यादा बढ़ गया है. देश के सिर्फ 1% सबसे अमीर लोगों के पास 2022 में देश की सारी कमाई का 22.6% हिस्सा था. ये बहुत ज्यादा है, क्योंकि 1951 में इनके पास सिर्फ 11.5% हिस्सा था.

देश के सबसे गरीब 50% लोगों के पास 1951 में देश की सारी कमाई का 20.6% हिस्सा था, लेकिन 2022 में ये घटकर सिर्फ 15% रह गया.  देश में बीच के 40% लोगों की कमाई में भी बहुत कमी आई है. उनके पास 1951 में देश की सारी कमाई का 42.8% हिस्सा था, लेकिन 2022 में ये घटकर 27.3% रह गया. यानी, पिछले कुछ सालों में भारत में कुछ ही लोगों के हाथ में बहुत ज्यादा पैसा आ गया है, जबकि ज्यादातर लोगों की कमाई बहुत कम हो गई है.

दलितों का शोषण

बहुत से दलित कर्ज के कारण बंधुआ मजदूर बन जाते हैं, हालांकि ये काम 1976 से ही गैरकानूनी है. इन्हें बहुत कम पैसे मिलते हैं या बिल्कुल नहीं मिलते. अगर ये विरोध करते हैं तो उनके साथ मारपीट की जाती है. लगभग 80% दलित गांव में रहते हैं और इनमें से ज्यादातर के पास जमीन नहीं होती. उन्हें खेती-मजदूरी करनी पड़ती है जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब होती है. कानून तो बना है लेकिन आज भी बहुत से दलितों को शौचालय साफ करना पड़ता है. ये बहुत ही अपमानजनक है. 

दलितों की कम आमदनी की असली वजह है शिक्षा की कमी, गरीबी या भेदभाव !

भारत के संविधान में अनुच्छेद 17 में छुआछूत को खत्म करने की बात कही गई है. अगर ऐसा कोई करता है तो सजा का प्रावधान है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के तहत दलितों और आदिवासियों के साथ होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए सख्त कार्रवाई की जाती है. ऐसे ही नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 का मकसद भारत में छुआछूत की प्रथा को खत्म करना है.

सरकार ने शिक्षा और सरकारी नौकरियों में दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सीटें आरक्षित की हैं. इसका मकसद इन समुदायों को आगे बढ़ाने में मदद करना है. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) एक संस्था है जो दलितों के हक की रक्षा करती है और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए काम करती है. 

सरकार की मनरेगा योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में दलितों को भी रोजगार दिया जाता है. स्टैंड अप इंडिया योजना के तहत दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को बैंक से लोन दिया जाता है ताकि वे अपना खुद का व्यापार शुरू कर सकें.

Reactions

Post a Comment

0 Comments