रमजान का पाक महीना और उसमे भी ...
आखिर कहां से आते हैं ऐसे लोग जो पाक और पवित्रता दोनों में अंतर नहीं कर पाते हैं !
जब जावेद और साजिद पड़ोसी विनोद के घर पहुंचे, तब तक इफ्तार का वक्त हो चुका था। रमजान के महीने में शाम होते ही, इफ्तार का वक्त हो गया है, ऐसा हर किसी ने कभी ना कभी सुना होगा। और मन में एक सम्मान सा भाव जाग जाता होगा, क्योंकि यह किसी की आस्था का विषय है। सम्मान नहीं जागता होगा तो कम से कम मन में उदासीनता ही रहती होगी। लेकिन घृणा भाव तो नहीं ही आता होगा। इफ्तार का वक्त हो गया है, यह बोलना ही अपने आप में एक कंपलीट कांसेप्ट है। बोलने वाले बड़ी मजबूती से बोलते हैं और समझते हैं कि वह क्या बोल रहे हैं। सुनने वाले इसे रिलिजियस प्रेक्टिस समझकर आगे बढ़ जाते हैं। सनातन में व्रत पूरा होने पर कोई फल, तुलसी पत्र अथवा गंगाजल ग्रहण करने की विधि होती है। लेकिन इस्लाम में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। इफ्तारी करनी है तो उसमें सब जायज है।
लोगों एवं आरोपी की दादी के अनुसार बदायूं वाले साजिद के मामले में एक एंगल जादू टोने का भी निकलकर सामने आ रहा है, जावेद दादी के अनुसार बचपन से साजिद पर किसी जादू टोने का असर था जिसके कारण वो बीमार रहता था और बचपन से ही अग्रेसिव दिमाग वाला था। अब इन्ही बातों को आधार माने तो साजिद ने इसी कटटरता वाली मानसिकता और अंधविश्वास के कारण पड़ोसी हिंदू विनोद के दोनों बच्चों का गला रेता और उनका रक्त पीकर इफ्तारी कर लिया। बच्चों की मां चाय बना कर लाने गई थी और जब चाय बना कर आई तो देखती है कि चाय की जगह आरोपी के मुंह से तो उसके बच्चों का खून लगा है ! इसके अलावा दो-दो हत्यायें करने के बाद घर से निकलते वक्त हत्यारे का ये बोलना कि मैने तो अपना काम कर लिया इसकी पूरी तरह पुष्टि करता है कि जावेद किस मानसिकता वाला व्यक्ति था।
जावेद और साजिद भी इंसान ही है। दिखने में कोई दानव नहीं लग रहा। बिल्कुल आम मानव की तरह। जैसे लोग बोलते हैं, हिंदू मुसलमान में भेद कैसा ? दोनों के शरीर में रक्त का रंग लाल ही होता है। लेकिन रक्त का रंग देखने वालों को रक्त का चरित्र नहीं दिखता है। पाक और पवित्रता दोनों में अंतर है। पवित्रता का अर्थ गंगाजल ग्रहण करना होता है, पाक वाले हिन्दुओं के रक्त पिपासु होते हैं !
इस्लाम का उदय जब हुआ था तब रमजान का ही महीना था, और जब सबसे पहला युद्ध बदर का युद्ध लड़ा गया था तब भी रमजान का ही महीना था। और मक्का के एक पूरी जनजाति को कत्लेआम के बल पर इस्लाम स्वीकार करवाया था, 624 ईस्वी में। कुछ वर्ष बाद मक्का पर कब्जा किया था, रमजान का ही पाक महीना था।
रमजान का ही महीना था जब 1946 में डायरेक्टर एक्शन किया गया। 17 वां दिन चल रहा था रमजान का और कलकत्ता में इश्तिहार दिया गया- हमलोग रमजान के महीने में जिहाद शुरू करने जा रहे हैं, अल्लाह की मर्जी से हिन्दुस्तान को दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामिक मुल्क बनाने में कामयाब होंगे, ऐ काफिरों! अब तुम्हारा वक्त आ गया है, अब कत्लेआम होगा।
कत्लेआम का मंजर कुछ ऐसा था कि पहले 72 घंटे में 6000 हिन्दुओं के कत्ल कर दिए गये। उनके घर के स्त्रियों के साथ वस्तुओं की तरह पशुवत व्यवहार किया गया। रमजान का पाक महीना कहने के यही निहितार्थ अब तक इस्लामिक इतिहास से प्रदर्शित हुआ है।
वैसे तो मोहम्मद साहब के बताए रास्ते पे चलना ही पवित्र और पाक इस्लाम है। लेकिन कुछ विकृत मानसिकता वाले लोगों के लिए तो तमाम कत्लेआम वाला ही असली इस्लाम है, उनके लिए तो काफिरों का रक्त बहाना भी इस्लाम है। और ये उनके लिए बड़ा पाक काम है।
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