G.News 24 : हां, मैं अनपढ़ हूं

हां, मैं अनपढ़ हूं

विश्वास से लबालब एक बुद्धिमान कुमार ने भरी सभा में मुझे अनपढ़ कहा

कुछ लोग बहुत रुष्ट हुए, कुछ को बड़े कष्ट हुए

कुछ मदमस्त हुए, कुछ बड़े संतुष्ट हुए।


मैने भी उसे सुना, मन ही मन गुना

मन ने मुझसे पूछा कि उसने गलत क्या कहा ?

बस, सच को कुछ दूसरी तरह से कहा

अपनी नज़र से देखा, अपने नजरिए से कहा।


सच है ! यदि मैं अनपढ़ न होता

तो डॉक्टरी पढ़कर भी बच्चों के संग खेलता ?

आदमी को आदमी बनाने में जीवन खपाता ?

गरल को पीता ? अमृत बहाता ? 

आत्मविस्मृत समाज की स्मृतियां जगाता ?

बिखरों को जोड़ता ? पिछड़ों को बढ़ाता ?

भारत के नवनिर्माण की पहेली सुलझाता ?


यदि मैं अनपढ़ न होता

तो अध्यात्म की साधना छोड़ कर 

गांव गांव की धूल फांकता ?

सालों साल भारत की परिक्रमा करता ?

आदमी को गढ़ने में खुद को गलाता ?

संतों को जोड़ता ? सबको जुटाता ?

न हिंदू पतितो भवेत् का मंत्र गुंजाता ?


यदि मैं अनपढ़ न होता

तो वन वन में क्यों भटकता ?

तन और मन को क्यों  जलाता ?

अंधेरे जंगलों की अंधेरी दुनिया में

शिक्षा के दीपक क्यों जलाता ?

कोढियों के घावों को, नवजातों के अभावों को, 

वृद्धों के मनोभावों को 

संवेदना का हाथ क्यों लगाता ?


कभी सोचा तुमने कि यदि मैं अनपढ़ न होता

तो कन्याकुमारी की शिला पर विवेकानंद कहां होते ?

रामशिला कहां होती ? रामज्योति कहां घूमती ? 

कोठारी बंधु कहां से मिलते ? 

कलंकों के प्रतीक कैसे मिटते ? 

अपने जन्मस्थान में  रामजी फिर बहाल कैसे होते ?


इसलिए हे आचार्यपुत्र, मैं अनपढ़ ही भला हूं

मैं वो ही स्वयंसेवक हूं जिसे तुम अनपढ़ कहते हो

सच है कि मैंने तुम्हारी तरह शास्त्र नहीं पढ़े

बाइबल नहीं पढ़ी, कुरान भी नहीं पढ़े

लेकिन मैने वे ढाई आखर जरूर पढ़े हैं 

जिन्हें लोग प्रेम कहते हैं


हे कविवर, मैने उस प्रेम को पढ़ा और जिया है

जिसे शबरी ने जिया, केवट ने जिया, निषाद ने जिया है

ये ढाई आखर वही पढ़ पाता है, जो अनपढ़ होता है

और, अनपढ़ होना, कबीर होना, रैदास होना, मीरा होना, रसखान होना

हर किसी के नसीब में नहीं होता।

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