इन कहानियों से गुजरता हुआ यहां तक पहुंचा मध्य प्रदेश...
67वें वर्ष में प्रवेश पर मध्य प्रदेश से जुड़े कुछ रोचक किस्से
भोपाल। अपनी स्थापना से लेकर अब तक मध्य प्रदेश कई ऐसे पड़ावों से गुजरा है, जो आज इतिहास की किताबों में संस्मरण के रूप में दर्ज हैं। कुछ पूर्व मुख्यमंत्रियों से जुड़े हुए, तो कुछ आम जनमानस से जुड़े हुए। ऐसे किस्से और घटनाक्रम ही तो किसी राज्य को जीवंत बनाते हैं।
एक मुख्यमंत्री, जो समस्या लेकर आने वालों को खिलाते थे पान...
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे भगवंतराव मंडलोई बड़े दिलचस्प शख्स थे। सहज-सरल मंडलोई कस्बाई पृष्ठभूमि के थे इसलिए सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर होने के बावजूद एक-एक पैसा सोच-समझकर खर्च करते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए अपने मेहमानों के सत्कार का खर्च बचाने के लिए उन्होंने अनूठा तरीका ईजाद किया था। जो भी मिलने आता, उसे वे पान खिलाकर रवाना कर देते थे। दरअसल, मुख्यमंत्री होने के नाते उनके पास रोजाना सैकड़ों लोग मिलने आते थे और उनके आतिथ्य का खर्च बढ़ता जा रहा था। इसीलिए मंडलोई ने जी ने 'हींग लगे न फिटकरी और रंग आवे चोखा का यह तरीका निकाला था।
जब भोपाल गैस कांड में बच गया हवन करने वाला परिवार
आदिकाल से कहा जा रहा है कि यज्ञ की अग्नि में औषधियों की आहुतियां देने से वातावरण शुद्ध होता है व हवा के जहरीले तत्व खत्म होते हैं। यह तथ्य1984 में भोपाल में हुए गैस कांड की मर्मांतक दुर्घटना में सही साबित हुआ। तब यूनियन कार्बाइड से मिथाइल आइसो सायनाइड गैस रिसी और चंद घंटों में हजारों निर्दोष लोग मौत की नींद सो गए। किंतु कारखाने के पास रहने वाले सोहनलाल कुशवाह और एमएल राठौर के परिवार बच गए, क्योंकि इनके घरों में रोज गाय के गोबर, घी, लकड़ी व औषधियों से हवन किया जाता था। बाद में इन परिवारों के बचने की घटना प्रतिष्ठित अखबारों में प्रकाशित हुई और अमेरिका तक में खूब चर्चा हुई।
मुख्यमंत्री डा. कैलाशनाथ काटजू जिन्हें प्रदेश की आर्थिक स्थिति सुधरने घर से मंगवाना पड़ा पैसा !
डा. कैलाशनाथ काटजू 1957 से 1962 तक मुख्यमंत्री रहे। वे जावरा (अब जिला रतलाम) में जन्मे थे और देश को आजादी मिलने के पहले ही अध्ययन व वकालत के सिलसिले में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) चले गए थे। वहां से वे देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में कूदे और कांग्रेस के सदस्य बन गए। आजादी के कुछ वर्ष बाद जब उन्हें मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया, तब प्रदेश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। मुख्यमंत्री तक को मासिक स्वागत भत्ते के लिए महज 250 रुपये मिलते थे। किंतु यह पैसा तो चंद मेहमानों के स्वागत में खर्च हो जाता था। अंतत: काटजू जी ने सरकार से यह भत्ता लेना भी बंद कर दिया और अतिथियों के स्वागत सत्कार के लिए अपने इलाहाबाद स्थित घर से हर महीने एक हजार रुपये का ड्राफ्ट मंगवाना मंगवाना शुरू किया।
250 रुपये के कारण मुख्यमंत्री को छोड़नी पड़ गई कुर्सी
दो बार मुख्यमंत्री रहे पंडित द्वारकाप्रसाद मिश्र को केवल 250 रुपये के कारण कुर्सी छोड़नी पड़ गई थी। हुआ यूं था कि स्वभाव से स्वाभिमानी मिश्र जी की एक बार ग्वालियर रियासत की राजमाता विजयाराजे सिंधिया से ठन गई। उन्होंने राज परिवारों पर कुछ सवाल उठाए थे, जिससे राजमाता नाराज हो गई थीं। इस बीच 1967 में चुनाव हुए और मिश्र जी मुख्यमंत्री बने। किंतु उनके सामने चुनाव हारे राजमाता समर्थक कमलनारायण शर्मा ने मिश्र जी पर चुनावी व्यय से ज्यादा खर्च का आरोप लगाते हुए न्यायालय में याचिका लगा दी। जांच में पाया गया कि मिश्र जी के प्रचार बैनर बनाने के लिए 500 रुपये का सफेद कपड़ा खरीदा गया था, जिससे चुनाव-व्यय तय सीमा से 250 रुपये अधिक हो गया था। कोर्ट ने इसे भ्रष्टाचार माना। अंतत: मिश्र जी को पद छोड़ना पड़ा।
जिन छह मंत्रियों को हटाने का संकेत मिला उनकी जगह शुक्ल जी ने दूसरे छह को हटा दिया
वर्ष 1970 में पंडित श्यामाचरण शुक्ल प्रदेश मुख्यमंत्री थे। यूं तो उनकी कार्यशैली सधी हुई थी, लेकिन भोपाल व दिल्ली में पैठ रखने वाले कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता उनसे नाराज रहते थे। नतीजतन, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक शुक्ल जी की शिकायतें पहुंचती रहती थीं। लगातार शिकायतें पहुंची तो इंदिरा जी ने शुक्ल जी के कामकाज पर नजर रखना शुरू कर दी। इसी बीच श्रीमती गांधी ने एक बार शुक्ल जी को दिल्ली बुलाया और कामकाज से असंतुष्टि जताते हुए उनके मंत्रिमंडल से छह मंत्रियों को हटाने के लिए कहा। शुक्ल जी ने हामी भर दी और भोपाल लौट आए। दुर्भाग्य से वे भूल गए कि किन छह को हटाने के लिए कहा है। उन्होंने अनुमान से अन्य छह मंत्रियों को हटा दिया।
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