राम से रैदास तक की राजनीति

देश दूसरी सारी लड़ाइयां भूल गया क्योंकि…

राम से रैदास तक की राजनीति

 

राजनीति किसी को नहीं छोड़ती चाहे फिर वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम हों या भक्त रैदास यानि अपने संत रवि दास, राम और रैदास को कभी अनुमान भी नहीं होगा कि कलिकाल में उनका इस्तेमाल खुलकर सियासत के लिए किया जाएगा और वे इसे रोक नहीं पाएंगे। वैसे ये काम उनका है भी नहीं। ये काम केंचुआ का है और दुर्भाग्य से केंचुआ रीढ़विहीन है। भारत में राम आज से नहीं हैं। वे त्रेता से हैं और अनंतकाल तक रहेंगे,लेकिन सियासत में उनकी चिंता चालीस साल पहले शुरू हुई। चक्रवर्ती राजा राम को उनके ही घर में मंदिर दिलाने के लिए भारत के नेताओं ने रथ चलाये,आंदोलन किये,बुर्जें गिराईं,गिरफ्तारियां दीं,पुलिस की गोलियां खाईं यहां तक कि बलिदान भी दिए। अदालतों में लम्बी लड़ाइयां लड़ीं ,लेकिन हार नहीं मानीं। आजादी से पहले देश अंग्रेजों से लड़ा और आजादी के बाद भूख,गरीबी  ,महामारी और पड़ौसियों से। देश ने आजादी के 33  साल बाद राम के लिए लड़ाई लड़ी। देश दूसरी सारी लड़ाइयां भूल गया क्योंकि उनसे सत्ता की राह आसान नहीं होती थी। और आज ये लड़ाई राम,रहीम से होती हुई संत  रविदास तक पहुँच गयी है।

इससे पहले किसी को संत रविदास इतनी शिद्द्त से याद नहीं आते थे जितने कि अब रहे हैं। आम आदमी से लेकर प्रधानमंत्री जी तक संत रैदास यानि रविदास जी के लिए समर्पित दिखाई दे रहे हैं ,क्योंकि इस बार रविदास का जन्मदिन विधानसभा चुनावों के दौर में पड़ा है। मैंने देखा कि एक सांसद जी जिस चर्मकार से अपने जूते पालिश करते थे वे संत रविदास जयंती   पर उसी के जूते पालिश कर संत रविदास के प्रति अपनी शृद्धा अर्पित कर रहे थे। बनारस के सांसद एक गुरुघर में करताल बजा रहे थे और एक युवराज लंगर में प्रसाद सेवा कर रहे थे। इस सबमें मुझे कोई बुराई नहीं दिखाई देती बशर्ते कि ये सब आम दिनों में भी किया जाता ,लेकिन ये सब प्रदर्शन संत रविदास के अनुयायियों के वोट हड़पने के लिए किया जा रहा है इसलिए  बुरा लग रहा है। हमारे इष्ट और हमारे संत अब या तो मूर्तियों में तब्दील हो चुके हैं या फिर जेलों में पड़े हैं और जो बच गए हैं वे सत्ता के अनुयायी हो गए हैं। सबकी अपनी-अपनी विवशता है। जो जीवंत संत हैं उनके पास मठों,मंदिरों और पूजाघरों की अकूत सम्पत्ति का स्वामित्व है और सम्पत्ति सत्ता के बिना सुरक्षित नहीं रह पाती।

 इन आधुनिक संतों के पास इतना आत्मबल भी नहीं है कि वे नेताओं को अपने पूजाघरों का सियासी इस्तेमाल करने से रोक सकें। कह दें कि अभी आप चुनावी दौरे पर हैं इसलिए जाकर भाषण दें और जब चुनाव निबट जाएँ तब पूजा-अर्चना के लिए आएं। कहने को तो केंचुआ के आदर्श  आचार संहिता में भी इस बात की साफ़ मुमानियत है कि चुनावों के दौरान कोई पूजाघरों में नहीं जाएगा लेकिन केंचुआ की सुनता कौन है ? चुनाव ही तो वो मौसम है जिसमें नेता अपने आपको सबसे बड़ा भक्त और समाजसेवी साबित कर पाता है। चुनाव के बाद उसे इस सबके लिए फुरसत ही कब मिलती है। चुनाव के बाद सत्ता सुंदरी को साधना ही सबसे बड़ी चुनौती होती है। रैदास के भजन गाकर,सुनकर बड़ी हुई इस देश की तमाम पीढ़ियां सुखानुभूति करती आयीं हैं लेकिन वे भी अपने संतों के राजनीतिक इस्तेमाल के खिलाफ आवाज नहीं उठातीं। अब संत रविदास की ही बात नहीं है,बल्कि जो जिस समाज में पूज्य है वो सियासत के लिए सिक्का है फिर चाहे वे संत रविदास हों या भगवान परशुराम। तांत्या भील हों या विरसा मुंडा। राजनीति ने इन सबकी मूर्तियां और मंदिर बनाने का काम अपने हाथ में ले लिया है। सब इन संतों और भगवानों के जरिए वोटर तक पहुंचना चाहते हैं। नयी मूर्तियाँ गढ़ने वाले लोग गांधी की मूर्ती को तोड़ रहे हैं क्योंकि गांधी इस नई तरह की मूर्ती पूजा में सबसे बड़े बाधक हैं।

चुनावों के वक्त तो इन नेताओं का भक्तिभाव  चरम पर होता है। गनीमत है कि अभी चर्च बचे हैं,मस्जिदों में ये लोग नहीं घुसे हैं ,क्योंकि इनमें जाने में बहुसंख्यक वोटर आड़े   जाता है। बीते सात साल में आपने भजन करते देश के प्रधानमंत्री को किसी मजार पर जाते हुए नहीं देखा होगा भले ही बात सबका साथ  की जाती रही हो। ये धार्मिकता अतीत में कभी देखने को नहीं मिली। राजनीति के लिए राम या रविदास का इस्तेमाल करने से इन महापुरुषों का कुछ नहीं बिगड़ना लेकिन बिगाड़   हो रहा है सामाजिक ताने-बाने का ,दुर्भाग्य ये है कि बिगाड़ को सब देख रहे हैं,कोई आगे बढ़कर इसे रोकने की कोशिश तो दूर बात तक नहीं कर रहा। संविधान की कसमें खाकर सत्ता सिंहासन पर बैठने वाले किसी भी नेता कि निजी आस्थाओं पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता लेकिन एक देश के सर्वेसर्वा के नाते ये सवाल किये जा सकते हैं। या तो आप अपने निजी  आस्था और विश्वास को एकदम निजी बनाकर रखिये या फिर सभी धर्मों के महापुरुषों  और पूजाघरों का एक जैसा सम्मान कीजिये। ये जाहिर करने की क्या जरूरत है कि आप सबके नहीं बल्कि किसी एक मजहब के संरक्षक हैं ? राम और रैदास का राजनितिक इस्तेमाल करने वाले खुद उनकी शिक्षाओं को नहीं जानते। मैंने बचपन में पढ़ा था कि रविदास महाराज कहते थे कि -

 कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक पेखा,

वेद, कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा,

चारो वेद के करे खंडौती जन रैदास करे दंडौती।

बहरहाल हकीकत ये है कि राम और रविदास  कि दृष्टि आज के नेताओं की दिव्यदृष्टि के सामने किसी काम की नहीं है। नेता वोट के लिए किसी को छोड़ने वाले नहीं हैं,फिर वे चाहे जिस दल के हों। सबको सत्ता के लिए इन साधू-संतों और भगवानों की जरूरत है। आज के नेता खुद तो एकता और समानता का प्रतीक बन नहीं सकते इसलिए कभी सरदार पटेल की मूर्ती का इस्तेमाल करते हैं और कभी रामानुजाचार्य की मूर्ति का। जहाँ मूर्तियां नहीं होतीं वहां ये नेता भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं। यदि इन्हें रोका गया तो कलिकाल में राम अछूते रहेंगे और रविदास। सबका सियासी इस्तेमाल होगा। आपकी आप जानें ,मैंने तो अपने ' मन की बात ' कह दी। आज मुझे यही कहना था। क्योंकि आज की सबसे बड़ी समस्या और मुद्दा यही है।

- राकेश अचल

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