अटल जी की प्रासंगिकता
राजनीति की धुरी रहे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी
भारत में प्रतिपक्ष की राजनीति की धुरी रहे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी आज होते तो 97 साल के होते। वे विपक्ष के पहले राजनेता थे जिन्हें ' भारतरत्न ' जैसे देश के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया था। आज सवाल किया जा सकता है कि क्या अटल जी आज की राजनीति में प्रासंगिक होते या उन्हें भी लालकृष्ण आडवाणी की तरह मार्गदर्शक मंडल में सजावट की वस्तु बनाकर बैठा दिया जाता ? अटल जी की राजनीति को जानने वाले जानते हैं कि अटल जी भले ही संघदक्ष नेता थे लेकिन वे भाजपा का सबसे बड़ा और उदारवादी चेहरा थे। लगातार चार दशक तक देश की राजनीति में सर्वप्रिय रहे अटल जी यदि आज होते तो देश में भाजपा की स्थिति शायद कुछ और होती।
अटल जी भाजपा के पहले ऐसे नेता थे जिनका दीगर राजनीतिक दलों में सम्पर्क था,सम्मान था। वे न किसी के लिए अस्पृश्य थे और न कोई उनके लिए अस्पृश्य था। अटल जी को देश ने विभिन्न किरदारों में देखा। वे भाजपा के ऐसे नेताओं में शुमार थे जिन्होंने आजादी के बाद के तमाम प्रधानमंत्रियों के साथ संसद में विपक्ष की भूमिका का निर्वाह किया। कभी वे लोकसभा में बैठे तो कभी राजयसभा में। सबके दिलों में तो वे बैठते ही थे। वे वाकपटु थे किन्तु कर्कश नहीं थे। वे पार्टी लाइन पर चलकर काम करते थे किन्तु जहाँ जरूरत पड़ी उन्होंने पार्टी लाइन से हटकर भी काम किया और उसका खमियाजा भी भुगता किन्तु कभी भी वे राजनीतिक कटुता के हंसी के पात्र नहीं बने। एक पत्रकार के रूप में और एक सामान्य व्यक्ति के रूप में अटल जी को देखने,सुनने और समझने का मुझे पर्याप्त अवसर मिला। अटल जी मेरे शहर के थे।
इसलिए मुझे तो प्रिय थे ही। वे प्रधानमंत्री बनने से पहले और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अटल ही बने रहे। न उनकी चाल-ढाल बदली और न मुस्कराहट। पोशाक तो बिलकुल नहीं बदली। उन्हें बिजूका बनने का शौक कभी नहीं रहा। वे मॉडलों की तरह दिन में चार-पांच बार पोषक बदलने के भी हामी नहीं थे। वे जैसे अंदर से थे वैसे भी बाहर से भी थे। विनोदी थे लेकिन अभिनेता नहीं थे। वे देखकर भाषण नहीं देते थे ,जो बोलते थे सोचकर बोलते थे और ऐसा बोलते थे कि आदमी मंत्रमुग्ध हो जाये। अटल होने के लिए बहुत तप करना पड़ता है। अटल बिहारी के दामन पर विफलताओं के ,पराजय के अनेक दाग थे किन्तु उन्होंने कभी इस कारण अपने आपको अदावत की राजनीति का अंग नहीं बनने दिया। वे सतत संवाद के पक्षधर थे। देश में ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी वे सतत संवाद चाहते थे और इसमें उनके साथ धोखा भी हुआ। पाकिस्तान ने उनकी इस उदारता का गलत फायदा भी उठाया। लेकिन वे भीतर से विचलित हुए ,बाहर से कभी नहीं। अटल जी सबके हीरो थे। वे कैमरा प्रेमी भी नहीं थे ,वे खुद को कभी असुरक्षित भी नहीं समझते थे। अटल जी को रेड कार्पेट से प्रेम नहीं था। वे ग्वालियर व्यापार मेले की डामर की सड़कों पर अकेले नहीं बल्कि हुजूम के साथ घूमते थे। अटल जी ने किसी राज्य का मुख्यमंत्री को अपने कारकेट के पीछे कभी नहीं दौड़ाया। वे कवि हृदय थे,उनके भीतर वातसल्य और ममत्व का अद्भुद मेल था। वे संवेदनाओं के ज्वार को रोकते नहीं थे।
राजनीति में उन्होंने अभिनय कभी नहीं किया,किन्तु उनकी भाव मुद्राएं लोगों को हमेशा आकर्षित करती रहीं। ये हकीकत है कि अटल जी लोकप्रियता के बावजूद तीसरे कालखंड के लिए प्रधानमंत्री नहीं बन पाए लेकिन उन्होंने न कभी राज सत्ता हासिल करने के लिए दल-बदल को प्रोत्साहित किया और न राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त कराई। उन्होंने हारी हुई बाजियां जीतने के लिए भी कोई दांव दोबारा नहीं लगाया। वे अपनी तरह के राज नेता थे। उन्हें सहज रहना आता था। वे अपने शहर में अपनों के बीच जितने सहज रहते थे उतना कोई दूसरा राजनेता रह नहीं सकता। ग्वालियर में अटल जी के गुणों,दुर्गुणों के बारे में जितने अनुभव लोगों के पास है उतने शायद ही किसी नेता के बारे में किसी शहर के पास हों।
अविवाहित अटल जी कभी रणछोड़ नहीं बने। उन्होंने परिवार को अपने ढंग से गढ़ा और जीवन पर्यन्त उसका निर्वाह किया। वे रिश्तों के महत्व को जानते थे। अपने तमाम छोटे-बड़े रिश्तों को उन्होंने महत्व दिया,निभाया। वे खुली किताब की तरह थे। उनके बारे में कोई ऐसा रहस्य नहीं था जिसे अनावृत करने की जरूरत पड़ी हो। व खुद सबके सामने आरपार प्रकट होते थे। उनकी कामनाएं,वासनाएं कभी राजनीति के आड़े नहीं आयीं। उन्होंने अमरत्व की कामना नहीं की। उन्होंने जनता के मनोभावों के साथ खिलावड़ नहीं की। कभी देश को कतारों में खड़ा होने के लिए विवश नहीं किया। अटल जी के जमाने में भी पूंजीपति परिवार थे लेकिन किसी का इतना साहस नहीं हुआ की कोई उनके कंधे पर हाथ रख ले। उन्होंने जरूर किसी के आकंड़े पर हाथ रखा होगा तो आई रखा कि उसको लेकर सड़क और सांसद पर कोई चार्चा नहीं हुई।
उनके दौर में भी आंदोलन हुए,संसद हंगामा से भरी रही किन्तु जैसा व्यवहार हाल के दिनों में देश ने किसानों और संसद सदस्यों के साथ देखा वैसा अटल जी के कार्यकाल में कभी नहीं हुआ। विपक्ष से उनका संवाद सत्तारूढ़ दल के नेता के रूप में कभी टूटा ही नहीं। जब वे विपक्ष में थे तब भी तत्कालीन सत्ता पक्ष के लिए उतने ही आदरणनीय थे जितने कि प्रधानमंत्री के रूप में।मेरा सौभाग्य है कि मै अटल जी से एक मतदाता के रूप में,एक पत्रकार के रूप में और एक कवि के रूप में खूब मिला। मुझे लगता है कि अटल जी की कमी से ही भाजपा में विचलन की स्थिति आयी है। भाजपा जितनी तेजी से राजपथों पर दौड़ती नजर आयी उतनी ही तेजी से भाजपा के प्रति देश में वितृष्णा भी बढ़ी। एक तरह से लगता है कि अच्छा ही है कि अटल जी अपनी पारी पूरी खेलकर चुपचाप चले गए,अन्यथा यदि वे आज वे होते तो जरूर बोलते और यदि बोलते तो उन्हें भी लालकृष्ण आडवाणी की तरह अपमानित होना पड़ता। बावजूद इसके वे भारत की राजनीति में हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे। ये दुर्भाग्य ही है कि अटल जी के अपने शहर में अटल जी की कोई प्रतिमा नहीं है जबकि उनके अपने शहर में विधायकों और सांसदों के अलावा राजा-रानियों की तमाम प्रतिमाएं लगी हैं। हाँ यहां अटल जी के नाम पर एक राष्ट्रिय शैक्षणिक संस्थान अवश्य है।
- राकेश अचल
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