नीट की व्यवस्था लागू रही तो राज्य का स्वास्थ्य ढांचा चरमरा जाएगा...
NEET का विरोध !
तमिलनाडु विधानसभा ने लगभग सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर मेडिकल, डेंटल आदि के लिए होने वाली अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा नीट (नेशनल एंट्रेंस-कम-एलिजिबिलिटी टेस्ट) से बाहर होने की मंशा जताई है। राज्य सरकार चाहती है कि प्रदेश में 12वीं बोर्ड परीक्षा के अंकों को ही मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में एडमिशन का आधार बनाया जाए। न केवल सत्तारूढ़ डीएमके और विपक्षी दल एआईएडीएमके बल्कि पीएमके और कांग्रेस समेत तमाम पार्टियों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। एकमात्र अपवाद बीजेपी रही, जो सदन से वॉकआउट कर गई। सदन में दिखी यह भावना अकारण नहीं है। तमिलनाडु में नीट का विरोध पहले से होता रहा है। डीएमके ने हालिया विधानसभा चुनावों के दौरान कहा था कि अगर उसकी सरकार बनी तो राज्य में नीट समाप्त कर दिया जाएगा।
सरकार बनने के एक महीने के अंदर राज्य में नीट के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए अवकाश प्राप्त न्यायाधीश एके राजन की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी गई। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अगर कुछ साल और नीट की व्यवस्था लागू रही तो राज्य का स्वास्थ्य ढांचा चरमरा जाएगा और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सरकारी अस्पतालों में तैनात करने के लिए डॉक्टर कम पड़ने लगेंगे। राज्य की डीएमके सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पेश करने के फैसले का आधार इसी रिपोर्ट को बनाया है। लेकिन ध्यान रहे, एआईएडीएमके जब शासन में थी तो उसने भी विधानसभा में ऐसा ही प्रस्ताव पारित करवाया था।
राष्ट्रपति की मंजूरी न मिलने की वजह से उस प्रस्ताव पर अमल नहीं हो पाया। इस बार भी प्रस्ताव के अमल में आने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी की जरूरत पड़ेगी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर तमिलनाडु में नीट का इतना विरोध क्यों है। राज्य सरकार का कहना है कि नीट की पद्धति में अलग-अलग पृष्ठभूमि के छात्रों के साथ न्याय नहीं हो पाता है। 12वीं में मिले अंकों के आधार पर एडमिशन देने के पक्ष में उसकी दलील है कि मेडिकल एडुकेशन का स्तर ऊंचा बने रहना एडमिशन प्रक्रिया पर निर्भर नहीं करता। बहरहाल, नीट को लेकर शिकायतें तमिलनाडु तक सीमित नहीं हैं। अन्य राज्यों से भी शिकायतें आती रही हैं। यह कहा जाता रहा है कि नीट लागू होने के बाद से देश भर में कोचिंग क्लासेज की जकड़न मजबूत हुई है।
बगैर कोचिंग के मेडिकल एंट्रेंस क्लीयर करना मुश्किल हो गया है। इससे आर्थिक रूप से कमजोर तबकों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवा वंचित महसूस कर रहे हैं। यही हाल गैर-हिंदी भाषी युवाओं का है। ये शिकायतें वाजिब हो सकती हैं। लेकिन इसका हल यह नहीं हो सकता कि राज्य सरकारें इससे निकलने का फैसला करने लग जाएं। जरूरत इस बात की है कि सब मिलकर इस व्यवस्था की गड़बड़ियों को चिह्नित करें और उन्हें दूर करने की कोशिश करें ताकि देश भर के प्रतिभाशाली युवा खुद को साबित करने का मौका पाएं और उसका बेहतरीन इस्तेमाल कर सकें।
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